LS63 चिन्तन - मनन || १,०३४ सूक्तियों में शिष्टाचार, नीति, मनोविज्ञान, मोक्ष-धर्म आदि से संबंधित वर्णन
LS63 चिन्तन - मनन
प्रभु प्रेमियों ! लालदास साहित्य सीरीज के 63 वीं पुस्तक "चिन्तन - मनन " है. इसमें १,०३४ सूक्तियों का संकलन किया गया है । ये सूक्तियाँ शुच्याचार , शिष्टाचार , सामाजिक व्यवहार , नीति , मनोविज्ञान , सत्य नियम , अध्यात्म - ज्ञान और मोक्ष - धर्म आदि विषयों से संबंध रखती हैं । इस पुस्तक में चार साधनों से प्राप्त बातें हो सकती हैं ; जैसे- समाज में देखी हुई , पुस्तकों में पढ़ी हुई , किसी से सुनी हुई और स्वयं विचारी हुई या स्वयं अनुभव की हुई । पुस्तक में व्यवहार में उतारने के योग्य जो बातें बतायी गयी हैं.
दिशा-सूचक यंत्र की तरह व्यवहारिक जीवन की धर्म-संकटों में सही मार्ग प्रशस्त करने वाली अनमोल पुस्तक का नाम है- "चिंतन-मनन"
प्रभु प्रेमियों ! "चिंतन मनन" पुस्तक में जीवन में धर्म संकट के समय हमें जिस युक्ति, जिस व्यवहार का अनुसरण करना चाहिए, इसकी सटीक जानकारी देने वाली 1,034 सूक्तियों का संकलन है. इन सूक्तियों का पठन-मनन और आचरण करके हम अनायास ही अपने जीवन को आनंदमय, सुखमय और प्रतिष्ठित बना सकते हैं. लोक-परलोक को संभालने-सवारने वाले इन सूक्तियों का संग्रह एवं प्रकाशन करके लेखक, प्रकाशक ने हम सबों के लिए एक महान कार्य किया है. जिसके लिए वे सदा प्रणम्य रहेंगे.
हमारे जीवन के दोराहे पर इन सूक्तियों का क्या महत्व है, इसे निम्नलिखित उदाहरणों से समझें-
1. एक धार्मिक सम्प्रदाय के अनुयायी ने जाँचने के ख्याल से दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय के आचार्य से कोई प्रश्न किया । आचार्य ने उससे कहा कि आप मुझसे जो प्रश्न कर रहे हैं , क्या आपके सम्प्रदाय के आचार्य या आपके कोई भी गुरुभाई इसका उत्तर नहीं दे सके ? यदि उत्तर नहीं दे सके , तो माना जाएगा कि आपके आचार्य या आपके सभी गुरु - भाई ज्ञान के कंगाल हैं । यदि वे उत्तर दे सके और आप उत्तर पहले जानते हैं , तो मुझसे क्यों पूछने आए ? यह सुनकर प्रश्नकर्ता लज्जित हो गया और वहाँ से हट गया ।
2. एक विद्वान् थे , वे बड़े बुद्धिमान् थे । जो कोई उनसे अन्यायपूर्वक प्रश्न करता , तो वे उसके प्रश्न का उत्तर नहीं देते थे । प्रश्नकर्ता से वे कहते “ मैं आपके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता , आप यह प्रश्न किसी दूसरे विद्वान् से कीजिए । " - वे कभी - कभी यह भी कहते - " आप मेरे द्वारा दिये गये उत्तर नहीं मानेंगे , आप मेरे उत्तर को नहीं समझ पाएँगे , आप मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं होंगे , आप मुझसे व्यर्थ ही वाद - विवाद करने लग जाएँगे , प्रश्न का उत्तर न दे पाने के लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ । "
3. एक सज्जन थे , वे किसी से कुछ माँगते नहीं थे । यदि किसी से कुछ माँगने की विवशता आ जाती , तो वे उससे यह नहीं कहते कि आप इतने रुपये मुझे ऋण के रूप में देने की कृपा करें ; वे यह कहते कि आप मुझे इतने रुपये किसी से ऋण के रूप में दिला दीजिए । यह सुनकर यदि उसके पास रुपये होते , तो वह स्वयं दे देता था , नहीं तो किसी दूसरे से दिला देता था । ∆
चिंतन-मनन |
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